माह सफ़र इस्लामी क़मरी कैलेंडर का दूसरा महीना है, जो मोहर्रमुल हराम के बाद आता है। इस महीने का नाम अरबी शब्द "सफ़र" से लिया गया है, जिसके मायने हैं खाली या शून्य। इस नाम की वजह तारीख़ी तौर पर ये बताई जाती है कि अरब क़बीले इस महीने में अपने घरों को खाली छोड़कर सफ़र या व्यापार के लिए निकल जाते थे।
हालाँकि, इस्लाम में इस महीने की हैसियत के बारे में कुछ ग़लतफ़हमियाँ भी पाई जाती हैं, जैसे कि इसे मनहूस या बदशगुनी से जोड़ना। इस लेख में माह सफ़र की इस्लामी हैसियत, इससे मुताल्लिक हदीसें, तारीख़ी वाक़ियात और इसकी अहमियत पर रोशनी डाली जाएगी।
माह सफ़र की इस्लामी हैसियत
इस्लाम में तमाम महीनों को अल्लाह तआला की तख़्लीक़ के तौर पर बराबर अहमियत दी गई है। क़ुरआन मजीद में सूरह तौबा (आयत 36) में अल्लाह तआला फ़रमाता है:
"बेशक महीनों की गिनती अल्लाह के नज़दीक बारह महीने हैं, इस किताबुल्लाह में, जिस दिन उसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया। इनमें से चार हरमत वाले हैं। यही दीन क़ायम है।"
और इस आयत से वाज़ेह होता है कि तमाम महीने अल्लाह की तख़्लीक़ हैं और इनमें कोई महीना अपने आप में मनहूस या बदशगुनी वाला नहीं। माह सफ़र के बारे में आम तौर पर ये ग़लतफ़हमी पाई जाती है कि ये मनहूस या मुसीबत का महीना है। ये अकीदा जाहिलियत के ज़माने से चला आ रहा है, जब लोग कुछ औक़ात या महीनों को बदशगुनी से जोड़ते थे।
नबी ﷺ ने इस क़िस्म की तुहमत को वाज़ेह तौर पर रद्द किया। हदीस मुबारका में रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया
"कोई बीमारी आप से आप (अपने आप) संक्रामक नहीं होती, न कोई बदशगुनी है, न कोई 'हामह' (उल्लू के बारे में मान्यता) है और न ही 'सफ़र' (के बारे में बदशगुनी) है।"
(सही बुख़ारी, हदीस नंबर: 5757)
इस हदीस से मालूम होता है कि माह सफ़र को मनहूस मानना सरासर ग़लत है। इस्लाम ने तोहमपरस्ती (अंधविश्वास) को ख़त्म किया और हर महीने को अ
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